Thursday, February 21, 2019

हरगिज न मिट सकेंगे, नामोनिशान हमारे

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शंकरजयकिशन, शैलेन्द्र तथा हसरत जयपुरी के बारे में कई रोचक बातें विभिन्न सूत्रों से प्राप्त होती ही रहती है।कितने विस्मय की बात है कि इन सभी को गुजरे एक अरसा हो गया किन्तु फिर भी आये दिन इनको लेकर कुछ न कुछ पड़ने में आता रहता है,इसका कारण यह नाम आकर्षित करते है,इनको पड़ने वालो की संख्या लाखो में है।न जाने कितने ही गीतकार व संगीतकार आए व गए उन्हें याद करने वालो के अस्तित्व ही मिट गए किन्तु इस संगीतकार व गीतकार जोड़ी के चर्चे आम बने रहते है।यह कुछ ऐसा कर गए जो समय से बहुत आगे है।इन्हें हिंदी फिल्मों का वेदव्यास कहा जा सकता है!कहा जाता है कि महाभारत से पूर्व ही वेदव्यास जी ने महाभारत लिख दी थी!यही बात शंकरजयकिशन हसरत जयपुरी व शैलेन्द्र पर लागू होती है।वह आने वाले फिल्मी संगीत को सदा के लिए पहले ही स्थापित कर गए।अब नए संगीतकारो के लिए कुछ भी शेष नही बचा!न ही उनमे कुछ नूतन करने का जज्बा शेष है।तभी सभी एकमत होकर स्वीकारते भी है कि शंकरजयकिशन जैसा कोई नही!सचिनदेव बर्मन,नोशाद, सी.रामचंद्र,ओ.पी.नैय्यर, मदन मोहन,चित्रगुप्त,हेमन्त कुमार,वसंत देसाई,राम लाल,दानसिंह जैसे संगीतकार शंकरजयकिशन के संगीत के कायल थे।मशहूर संगीतकार इलैयाराजा शंकरजयकिशन के संगीत की तारीफ करते नहीं अघाते,तो कल्याण जी आनंद जी खुले रूप से स्वीकारते है कि हमारा संगीत शंकरजयकिशन से ही प्रेरित है,तो लक्ष्मीकांत प्यारेलाल की जोड़ी के लक्ष्मीकांत कहते है कि हिंदी फिल्मों में संगीत की महत्ता को शंकरजयकिशन ने ही स्थापित कर फिल्मो का प्रमुख अंग बना दिया तो इसी जोड़ी के प्यारेलाल उन्हें सबसे महान संगीतकार मानते है।संगीत निर्देशिका उषा खन्ना तो खुले रूप से स्वीकारती भी है कि मैंने सदा उनके संगीत की ही नकल की है वह बताती भी है कि जब गीत में गाउँ तुम सो जाओ की रिकार्डिंग हो रही थी तो में उस वक़्त में रेकॉर्डिंग रूम में थी,इस गीत की कम्पोज़िशन को सुनकर में हैरत में पढ़ गई मैने इसको कई बार रेकॉर्ड करने की कोशिश भी की किन्तु सफल न हो सकी,फिर भी मैने इसी धुन पर गीत बनाया जो सभी को पसंद आया।संगीतकार राम लक्ष्मण भी खुले रूप में स्वीकारते है कि शंकरजयकिशन ने हमारे लिए कुछ छोड़ा ही नही!हम तो बस उनके संगीत का उल्टा सीधा स्वरुप बनाकर संगीत को प्रस्तुत कर देते है।राजेश रोशन भी शंकरजयकिशन के संगीत को ही प्रमुख मानते है,यही हाल हिमेश रेशमिया का है।संगीतकार राहुल देव बर्मन भी सदा फ़िल्म राजकुमार के संगीत को अपना संगीत आधार स्वीकारते है।हिमेश रेशमियां के पिता विपिन रेशमियां संगीतकार शंकरजयकिशन के पास संगीतवाद्य कलाकार की हैसियत से कार्य करते थे का मानना है कि शंकरजयकिशन के पास संगीत की जादुई पोटली थी!जहां आज का संगीतकार अपनी फिल्म के एक गीत हिट हो जाने पर सातवें आसमान पर जा बैठता है किन्तु शंकरजयकिशन की एक ही फ़िल्म के प्रायः सभी गीत हिट होते थे।
यही कारण है कि संगीतकार अन्नू मलिक उन्हें संगीतकारो का बाप कहते है,वह और आगे बढ़कर कहते है कि हम सभी संगीतकार उनके द्वारा निर्मित संगीत के कुएँ से संगीत के पानी की बाल्टियाँ भरकर लाते है और संगीत प्रेमियों की प्यास बुझाते है।शंकरजयकिशन के लिए इतने संगीतकारो की प्रशंसा उन्हें बुलन्दियों पर स्थापित करती है।शंकरजयकिशन बिल्कुल भी पड़े लिखे नहीं थे अतः उनके नोटेशन का काम उनके सहायक सेबेस्टियन करते थे,अतः सेबेस्टियन का नाम सदा के लिए शंकरजयकिशन के साथ जुड़ गया जबकि वह ओ.पी.नैयर के लिए भी कार्य करते थे!शंकरजयकिशन कि दरियादिली भी कम न थी!उन्होंने RK की फ़िल्म अब दिल्ली दूर नही दत्ताराम को दिलाई,जब राजकपूर ने कहा कि क्या दत्ताराम इसे संभाल लेंगे?तो उनका जवाब था यदि दिक्कत हुई तो हम सब संभाल लेंगे किन्तु दत्ताराम को अवसर मिलना चाहिए,कौन अपने सहायक के लिए ऐसा करता है?यही कारण है कि शंकरजयकिशन के कारण ही सेबेस्टियन व दत्ताराम सहायक के रूप विख्यात हो गए,जनता उन्हें जानती है अन्यथा किस संगीतकार के संगीत सहायक को दुनियाँ जानती है? जयकिशन ने शम्मीकपूर के विरुद्ध जाकर फ़िल्म तीसरी मंजिल राहुल देव बर्मन को दिलाई जो उनके केरियर में मील का पत्थर साबित हुई।संगीतकार शंकर ने मनोज कुमार की फ़िल्म उपकार कल्याणजी आनंद जी को दिलाई जो उनके लिए सफलता का मुख्य कारण बनी।शंकरजयकिशन, शैलेन्द्र व हसरत जयपुरी की जोड़ी का मुकाबला आज तक भी कोई कर नहीं सका है,यह परस्पर विश्वास का बीज था जो फ़िल्म बरसात में अंकुरित हुआ था।किंतु इन चारों को लेकर भी कई किस्से कहानियाँ है जिनका सूत्रों से पता चलता है।मेरा लेखन भी इन सूत्रों पर ही आधारितं है अन्यथा हम तो उस काल मे बच्चे थे न ही कभी शंकरजयकिशन, शैलेन्द्र व हसरत से कभी मिले!यह तो उनके गीत संगीत का जादू है जो हमे सुख प्रदान करता है तथा उन असंख्य लोंगो से परिचित कराता है जिनसे कभी मुलाकात ही न थी।आज शंकरजयकिशन के कारण ही हम हज़ारों लोग अब मिलने ही न लगे है अपितु अब पारिवारिक मित्र भी बन गए हैं,इसका श्रेय निसंदेह शंकरजयकिशन म्यूजिकल फाउंडेशन अहमदाबाद को जाता है।एक वक्त ऐसा भी आया कि शंकरजयकिशन गीतकार राजेन्द्र कृष्ण को अवसर देने लगे जो हसरत जयपुरी व शैलेन्द्र को नागवार लगा।शैलेन्द्र ने एक पर्चा लिखकर उन तक पहुंचाया जिसमे लिखा था" छोटी सी ये दुनियाँ पहचाने रास्ते है तुम कही तो मिलोगे कभी तो मिलोगे तो पूंछेगे हाल"।शंकरजयकिशन उनका आशय समझ गए ,उस वक़्त उन्होंने फिल्म रंगोली साइन की थी।फ़िल्म के निर्देशक राजेन्द्र सिंह बेदी चाहते थे कि फ़िल्म के गीत मजरुह सुल्तान पूरी लिखे किन्तु शंकरजयकिशन ने साफ कह दिया कि शैलेन्द्र व हसरत के अलावा अन्य कोई भी स्वीकार्य नही,ओर ऐसा हुआ भी,शैलेन्द्र व हसरत ने ही गीत लिखे और जो पर्चा शैलेन्द्र ने लिखा था उसे गीत की शक्ल भी मिली और यह गीत आज भी सुना जाता है।शंकरजयकिशन वचन के पक्के थे,जब बी.आर.चोपड़ा ने उन्हें फ़िल्म वक़्त का संगीत देने का आग्रह इस शर्त पर रखा कि साहिर लुधियानवी इसके गीत लिखेंगे तो शंकरजयकिशन ने विनम्रतापूर्वक यह फ़िल्म साइन करने से इंकार यह कहकर कर दिया कि हम साहिर का सम्मान करते है किन्तु शैलेंद्र व हसरत का साथ हम नहीं छोड़ सकते।यह जोड़ी भावनाओं की मित्रता थी जिसमे चारो एकाकार थे।शंकरजयकिशन में स्वाभिमान कूट कूट कर भरा था जब वी.शांताराम ने उन्हें फ़िल्म आफर की तो उन्हें खुशी मिली किन्तु जब शांताराम ने अपने स्टूडियो में गीतों को रिकार्ड करने की शर्त रखी तो उन्होंने स्पष्ट इंकार कर दिया और कहा संगीत सृजन कहाँ और कैसा करना है यह हमारा अधिकार क्षेत्र है और फ़िल्म छोड़ दी।अन्यथा शांताराम अथवा बी.आर.चोपड़ा की फिल्मे कौन छोड़ना चाहेगा? शंकरजयकिशन ने कभी भी हसरत व शैलेंद्र को अन्य संगीतकारो के साथ कार्य करने से नही रोका, इसके बावजूद भी इन चारों की जोड़ी में सदा विश्वास का सागर लहराता रहा। विजय आनंद अपनी महत्वाकांक्षी फ़िल्म गाइड का निर्माण कर रहे थे।फ़िल्म तेरे घर के सामने में हसरत जयपुरी के गीत हिट हुए थे,अतः फ़िल्म गाइड के लिए भी उनका चयन कर लिया गया।हसरत जयपुरी ने अभी दो ही गीत लिखे थे कि एक गीत को लेकर विजय आनंद व हसरत जयपुरी में मतभेद हो गए,विजय आनंद को एक गीत का मुखड़ा...दिन ढल जाय हाये रात न जाए.. पसंद नही था वह इसे बदलना चाहते थे किंतु हसरत जयपुरी इसी मुखड़े को श्रेष्ठ मानते थे,तब विजय आनंद ने शैलेन्द्र को लेने का फैसला किया।शैलेन्द्र को इस बात की पीड़ा थी कि उन्हें हसरत के बाद स्थान दिया जा रहा है,अतः उन्होंने काफी बड़ी फीस विजय आनंद के समक्ष रखी जिसे तुरंत स्वीकार कर लिया गया।किन्तु शैलेन्द्र व हसरत की मित्रता अटूट थी अतः शैलेन्द्र ने दो शर्ते रखी प्रथम हसरत जयपुरी को सम्पूर्ण मुआवजा दिया जाय द्वितीय हसरत के लिखे विवादित गीत के मुखड़े को ज्यो का त्यों रखा जाय,शैलेन्द्र की दोनों शर्तो को माना गया,इस प्रकार हसरत के लिखे मुखड़े को सम्पूर्ण गीत की शक्ल शैलेन्द्र ने दी,ओर यह कालजयी गीत आज भी जवाँ बना हुआ है।मित्रता का इतना ख्याल क्या आज के युग मे संभव है?अपने मित्र के मुखड़े को न बदलने की शर्त पर काम करना उन्हें सम्पूर्ण मुआवजा दिलाना,भले ही फ़िल्म गाइड से हसरत को निकाला गया किन्तु शैलेन्द्र ने उनके मुखड़े को यथावत रख सदा सदा के लिए हसरत जयपुरी को गाइड के साथ जोड़ ही दिया,यह मित्रता का अनुपम उदाहरण है।वास्तविकता यह थी SDB बीमार थे जब यह कॉन्ट्रैक्ट हुआ और SDB की पहली पसंद शैलेंद्र हुआ करते थे।आजकल रैंप संगीत चरम पर है जिनके गीतों की उम्र एक माह भी मुश्किल से होती है।रैंप गीत की शुरुआत तो फ़िल्म श्री 420 से आरम्भ हुई थी जिसका श्रेय शंकरजयकिशन को ही जाता है किन्तु उस वक़्त इन्हें रैंप गीत नहीं कहा जाता था,इन गीतों में गति होती थी किन्तु उसमे असरकारक काव्य भी होता था" दिल का हाल सुने दिल वाला सीधी सी बात न मिर्च मसाला"मन्नाडे के गाये व शैलेंद्र के लिखे गीत को आज भी कोई मिटा न सका है!यह चालुपन्ति नही थी जीवन का काव्य था!आज के संगीतकार व गीतकार इस बात को क्या जाने।शंकरजयकिशन व शैलेन्द्र ने जो भी बनाया अमिट बनाया,इसके मूल में मित्रता की गहरीं आपसी समझ थी और हृदय से यह रचनाएं बनाई जाती थी।शैलेंद्र की मृत्यु शंकरजयकिशन व हसरत जयपुरी के लिए किसी आघात से कम न थी,उसके बाद इन चारों की जोड़ियों का संतुलन ही बिगड़ गया।फ़िल्म मेरा नाम जोकर के निर्माण के दौरान ही शैलेन्द्र का स्वर्गवास हुआ था अतः उनके स्थान पर नीरज को जगह दी गई।इस फ़िल्म से जुड़ा एक रोचक प्रसंग भी है।नीरज की एक प्रसिद्ध रचना थी " यह राजपथ है मेरे भाई" इसी गीत को परिवर्तन करके प्रसिद्ध गीत " ए भाई जरा देख के चलो" लिखा गया,जिसमे जीवन को सर्कस के साथ जोड़ा गया।
राजकपूर ने नीरज से कहा कि इस गीत को बड़े बड़े अक्षरों में लिखकर शंकर जी के पास जाय क्योकि उन्हें पड़ने में असुविधा होती है।नीरज ने ऐसा ही किया बड़े बड़े अक्षरों में गीत लिखकर शंकर जी के पास गए तो शंकर जी बोले क्या कोई महाग्रंथ लिखा जा रहा है?यद्यपि राजकपूर भी ज्यादा पड़े लिखे नही थे,किन्तु कुछ अभ्यास से वह हिंदी व अंग्रेजी में पारंगत हो गए जैसे कि कपिल देव,महेंद्र सिंह धोनी आदि,इन्हें भी अंग्रेजी नही आती थी किन्तु लगातार प्रैक्टिस से अब ये दोनों फर्राटे से अंग्रेजी बोल लेते है।मुझे तो आश्चर्य होता है जब यह पड़ता हूँ कि जयकिशन को इंग्लिश फिल्मे देखने का शौक था!जबकि वह भी शंकर की भांती ही थे,तो भला फ़िल्म को कैसे समझते होंगे?सम्भवतया रोमेंटिक तबियत के होने के कारण देखते हो?अथवा संगीत की बारीकियों को समझने के लिए?खैर शंकर को दक्षिण भारतीय होते हुए भी मैंने सुना है तथा वह बहुत अच्छी हिंदी बोलते थे।राजकपूर को किसी का उपहास उड़ाने से पूर्व स्वयं को भी देख लेना चाहिए!यदि राजकपूर इतने पड़े लिखे थे तो उन्होंने अनपढ़ शंकरजयकिशन को क्यो अवसर दिया?किसी पड़े लिखे को दे देते?कला स्वयं में एक भाषा होती है जिसको पड़े लिखे लोग समझ नहीं पाते,यही कारण है कि मैकेनिकल इंजीनियर अपने वाहनों की रिपेयरिंग अनपढ़ मैकेनिकों से करवाते है!डिग्री व कला में यही फर्क होता है।खैर वापस शंकर जी पर आता हूँ,शंकर बड़े शब्दो से राजकपूर व नीरज की मंशा को भांप गए कि यह उनका उपहास उड़ाने के लिए किया है अतः उन्होंने नहले पर दहला मारा, उन्होंने गीत की धुन ठीक उसी प्रकार बनाई जैसा कि नीरज कवि सम्मेलनों में गाते थे और राजकपूर से भी उन्ही के अंदाज़ में गंवाया..सर्कस.हाँ हाँ बाबू यह सर्कस है!शो तीन घंटे का..ओर ऐसी बेमिसाल धुन बनाई की जिसकी कल्पना शायद ही कोई संगीतकार कर सके!शंकर ने नीरज के शब्दों को मन्नाडे की आवाज में इस तरह से अपनी धुनों में सजाया कि राजकपूर व नीरज अवाक रह गए!उन्होंने कल्पना ही नही की थी कि इस प्रकार के गीत को इतनी बेहतर धुन भी मिल सकती है,गीत के चरम पर शंकर ने जो संगीत दिया वह सम्पूर्ण जीवन के निचोड़ को परिभाषित करता है।कभी कभी उपहास भी महान रचनाओं को जन्म देता है।तुलसीदास का उपहास न होता तो रामचरितमानस कभी रचित नही होता?शायद इसी कारण लतामंगेशकर शंकर को फ़िल्म इंडस्ट्री का सर्वश्रेष्ठ कंपोजर मानती है,क्योकि शंकर के जीवन मे संगीत के अतिरिक्त कुछ न था और इसी की साधना से वह सफलता के सर्वोच्च शिखर तक पहुंचे।शंकरजयकिशन, शैलेन्द्र व हसरत जयपुरी का आरंभ अभावों की गलियों से आरम्भ होकर सफलता के शिखर पर स्थापित हुआ था,जिसमे आपसी विश्वास का बीज,जी तोड़ मेहनत व साधना तथा मित्रता का बेहतरीन उदाहरण था जिसने इतिहास रच दिया।विली जोली ने सही लिखा है कि"
आस्था रखे,विश्वास करें और यह याद रखे कि आसमान ही आपकीं सीमा है।हमेशा आसमान तक पहुंचने का प्रयास करें और अगर आप निशाना चूक भी गए,तो भी आपकी जगह सितारों में होगी!
शंकरजयकिशन, शैलेन्द्र तथा हसरत जयपुरी पर यह बात सो फीसदी लागू होती है।वक्त तेजी से बदल रहा है,किन्तु इन चारों की मित्रता अपना उच्च मुकाम हासिल किए हुए है।किंतना सुखद लगता है कि महान गीतकार शैलेन्द्र अपनी फिल्म तीसरी कसम के दो गीत लिखवाते है जो मित्रता का अनुपम उदाहरण है।हसरत जयपुरी ने अपने मित्रो तथा अपने लिए बहुत ही सही लिखा है।
" पत्थर की है लकीरें अहदे वफ़ा हमारी,हरगिज न मिट सकेंगे नामोनिशान हमारे"
काल के प्रस्तर पर शंकरजयकिशन, शैलेन्द्र व हसरत जयपुरी की रचनाएं सदा अंकित रहेगी ,युग बदलते रहेंगे।
Shyam Shanker Sharma
Jaipur,Rajasthan.

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